Natasha

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राजा की रानी

कल रात को बिल्कुतल ही नींद नहीं आई थी, शायद इसीलिए आज खा-पीकर बिस्तर पर पड़ते ही सो गया।


नींद खुली करीब चार बजे। कुछ दिनों से मैं नियमित रूप से घूमने निकल जाता था, आज भी हाथ-मुँह धोकर चाय पीकर निकल पड़ा।

दरवाजे के बाहर एक आदमी बैठा था, उसने मेरे हाथ में एक चिट्ठी दी। सतीश भारद्वाज की चिट्ठी थी, किसी ने बहुत मुश्किल से एक पंक्ति लिखकर जताया कि वह बहुत बीमार है। मैं न जाऊँगा तो वह मर जायेगा।

मैंने पूछा, “क्या हुआ है उसे?”

उस आदमी ने कहा, “हैज़ा।”

मैं खुश होकर बोला, “चलो।” खुश इसलिए नहीं हुआ कि उसे हैज़ा हुआ है; बल्कि इस बात की खुशी हुई कि कम-से-कम कुछ देर के लिए तो घर से सम्बन्ध छूटने का मौका हाथ लगा और इसे मैंने बहुत बड़ा लाभ समझा।

एक बार सोचा कि रतन को बुलाकर कम-से-कम उसे कह तो जाऊँ, पर उसकी अनुपस्थिति से ऐसा न कर सका। जैसा खड़ा था वैसा ही चल दिया, घर के किसी भी आदमी को कुछ मालूम न हुआ।

लगभग तीन कोस रास्ता तय करने के बाद संध्याआ के समय सतीश के कैम्प पर पहुँचा। सोचा था कि रेलवे कन्स्ट्रक्शन के इन्चार्ज 'एस.सी. बरदाज' के यहाँ बहुत कुछ ऐश्वर्य दिखाई देगा, मगर वहाँ पहुँचकर देखा कि ईष्या करने लायक कोई भी बात नहीं है। छोटे-से एक छोलदारी डेरे में वह रहता है, उसके पास ही पुआल और डाली-पत्तों से छाई हुई एक झोंपड़ी है, उसमें रसोई बनती है। एक हृष्ट-पुष्ट बाउरी की लड़की आग जलाकर कुछ उबाल रही थी। वह मुझे अपने साथ तम्बू के भीतर ले गयी।

इस बीच में रामपुर हाट से एक छोकरा-सा पंजाबी डॉक्टर आ पहुँचा था। मुझे सतीश का बाल्य-बन्धु जानकर मानो वह जी-सा गया। रोगी के बारे में बोला, “केस सीरियस नहीं है, जान का कोई खतरा नहीं।” फिर कहने लगा, “मेरी ट्राली तैयार है, अभी रवाना न होने से हेड-क्वार्टर्स से पहुँचने में बहुत ज्यादा रात हो जायेगी- तकलीफ का ठिकाना न रहेगा।” मेरा क्या होगा, यह उसके सोचने का विषय नहीं। कब क्या करना होगा, इस बात का भी उपदेश दिया; और अपनी ठेलागाड़ी पर रवाना होते समय बैग में से दो-तीन डिब्बी और शीशियाँ मेरे हाथ में देते हुए उसने कहा, “हैज़ा छूत की बीमारी है। उस तलैया का पानी काम में लाने के लिए मना कर दीजिएगा।” कहते-कहते उसने सामने के एक मिट्टी निकाले हुए गढ़े की और इशारा किया, और फिर कहा, “और अगर आपको खबर मिले कि कुलियों में से किसी को हैज़ा हो गया है- हो भी सकता है, तो इन दवाओं को काम में लाइएगा।”

इतना कहकर रोग की किस अवस्था में कौन-सी दवा देनी होगी, यह सब भी उसने समझा दिया।

आदमी बुरा नहीं है, और दया-माया भी है। मुझे बार-बार समझाकर सावधान कर गया है कि अपने बाल्य-बन्धु की तबीयत का हाल कल उसे जरूर मिल जाय, और कुलियों पर भी निगाह रखने में भूल न हो।

यह अच्छा हुआ। राजलक्ष्मी गयी वक्रेश्वर की यात्रा करने, और नाराज होकर मैं निकला बाहर फिरने। रास्ते में एक आदमी से भेंट हो गयी। बचपन का परिचय था उससे, इसलिए बाल्य-बन्धु तो है ही। हाँ, इतना जरूर है कि पन्द्रह-सोलह वर्ष से उससे भेंट नहीं हुई थी, इसलिए सहसा उसे पहिचान न सका था। मगर इन दो ही चार दिनों के अन्दर यह कैसी घोर घनिष्ठता हो गयी कि उसके हैजे के इलाज का भार, तीमारदारी की जिम्मेवारी, और साथ ही उसके सौ-डेढ़ सौ मिट्टी खोदने वाले कुलियों की रखवारी का भार- वह तमाम आफत मुझ पर ही आ टूटी! बच रहा सिर्फ उसका सोले का हैट और टट्टू घोड़ा- और शायद वह मजदूर की लड़की भी। उसकी मानभूमि‍ की अनिर्वचनीय बाउरी भाषा का अधिकांश मुझे खटकने लगा। सिर्फ एक बात मुझे नहीं खटकी, वह यह कि इन दस ही पन्द्रह मिनटों के दर्म्यान, मुझे पाकर उसे बहुत कुछ तसल्ली हो गयी। जाऊँ, अब इतनी कमी क्यों रक्खूँ, जाकर घोड़े को एक बार देख आऊँ।

सोचा कि मेरी तकदीर ही ऐसी है। नहीं तो उसमें राजलक्ष्मी ही क्यों कर आती, और अभया ही मेरे जरिए अपने दु:ख का बोझ कैसे ढुआती? और यह मेंढक और उसके कुलियों का झुण्ड- और किसी व्यक्ति को तो यह सब झाड़-फेंकने में क्षण-भर की भी देर न लगती। तब फिर मैं ही क्यों जिन्दगी-भर ढोता फिरूँ?

तम्बू रेल-कम्पनी का है। सतीश की निजी सम्पत्ति की सूची मैंने मन-ही-मन बना ली। कुछ एनामेल के बर्तन, एक स्टोव्ह, एक लोहे की पेटी, एक चीड़ का बॉक्स, और उसके सोने की कैम्बीस की खाट- जिसने बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने से डांगी का रूप धारण कर लिया था। सतीश होशियार आदमी है, इस खाट के लिए बिस्तर की जरूरत नहीं पड़ती, कोई बिछौने जैसी चीज होने से ही काम चल जाता है, इसी से सिर्फ रंगीन दरी के सिवा उसने और कुछ नहीं खरीदा। भविष्य में हैजा होने की उसे कोई आशंका नहीं थी। कैम्बीस की खाट पर तीमारदारी करने में बहुत ही असुविधा मालूम हुई; और जो एकमात्र दरी थी, सो बहुत ही गन्दी हो चुकी थी, इसलिए उसे नीचे जमीन पर सुलाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था।

मैं यत्परोनास्ति चिन्तित हो उठा। उस लड़की का नाम था कालीदासी। मैंने उससे पूछा, “काली कहीं किसी से एक-दो बिछौने मिल सकते हैं?”

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